अख़्लाक़ के उंसुर हूँ अगर अस्ल मिज़ाज
जो क़ौम हो कभी न मुहताज-ए-इलाज
हो उस को हमेशा ख़र्क़-ए-आदत का ज़ुहूर
हासिल हो उसे उम्र-ए-अबद की मेराज
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अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है
कहते हो कि कर लेंगे हम इस काम को कल
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
ख़ुदा ने मुँह में ज़बान दी है तो शुक्र ये है कि मुँह से बोलो
दिल तो दिल अफ़ई-ए-गेसू वो बला है काफ़िर
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
ये बात अजीब निगाह में आई है
न अपना बाक़ी ये तन रहेगा न तन में ताब ओ तवाँ रहेगी
ईरानी फ़साहत और हिजाज़ी ग़ैरत
दौलत नहीं जब तक ये ज़ुबूँ रहते हैं
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल