'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
एक आध कोई हुनर भी होगा
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ईरानी फ़साहत और हिजाज़ी ग़ैरत
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
लाज़िम नहीं इस दौलत-ए-फ़ानी पे दिमाग़
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल
दिल तो दिल अफ़ई-ए-गेसू वो बला है काफ़िर
मर्ग़ूब हो गर तुम को उमूमी शाबाश
पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
कहते हो कि कर लेंगे हम इस काम को कल
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते
कहाँ नसीब ज़मुर्रद को सुर्ख़-रूई ये