शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
बुला बुला के थके हम क़ज़ा नहीं आई
Allama Iqbal
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मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
दौलत के भरोसे पे न होना ग़ाफ़िल
ग़ैरत में सियासत में शुजाअ'त में हो मर्द
पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
तन ऐश का घर है इस का अस्बाब है रूह
लाज़िम नहीं इस दौलत-ए-फ़ानी पे दिमाग़
'शहबाज़' में ऐब ही नहीं कुल
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
है जिस की सरिश्त में सफ़ाहत का मैल
हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
अंजाम ख़ुशी का दुनिया में सच कहते हो ग़म होता है