हम रो रो अश्क बहाते हैं वो तूफ़ाँ बैठे उठाते हैं
यूँ हँस हँस कर फ़रमाते हैं क्यूँ मर्द का नाम डुबोता है
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ग़ैरत में सियासत में शुजाअ'त में हो मर्द
ईरानी फ़साहत और हिजाज़ी ग़ैरत
बूँद अश्कों से अगर लुत्फ़-ए-रवानी माँगे
मिट्टी का ही घर न होगा बर्बाद
अख़्लाक़ के उंसुर हों अगर अस्ल मिज़ाज
ये बात अजीब निगाह में आई है
पाता नहीं मौत पर कोई शख़्स ज़फ़र
शब-ए-फ़िराक़ का छाया हुआ है रोब ऐसा
इस से कि कहीं के शाह हो सकते हम
जिस इल्म से अच्छों की हो ख़ूबी ज़ाहिर
तालीम की मीज़ान में हैं तुलते जाते