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घर के बाहर भी तो झाँका जा सकता है - सौरभ शेखर कविता - Darsaal

घर के बाहर भी तो झाँका जा सकता है

घर के बाहर भी तो झाँका जा सकता है

और किसी का रस्ता देखा जा सकता है

रात गुज़ारी जा सकती है तारे गिन कर

दिन में चादर तान के सोया जा सकता है

शिकवे दूर किए जा सकते हैं यारों से

इस संडे को फ़ोन घुमाया जा सकता है

उस के जैसा ही अब कुछ हासिल है मुझ को

अब उस की ख़्वाहिश को छोड़ा जा सकता है

वैसे पैसा ही सब कुछ है इस दुनिया में

लेकिन पैसे पर भी थूका जा सकता है

वअ'दा करने में कैसी घबराहट प्यारे

वअ'दे से इक पल में पल्टा जा सकता है

मेरे अन-देखी करने का है क्या कारन

कम से कम उस से पूछा जा सकता है

मैं अपने चेहरे से थोड़ा ऊब गया हूँ

क्या अपना चेहरा भी बदला जा सकता है

शेर कहे जा सकते हैं परिपाटी वाले

और ज़मीनों पर भी सोचा जा सकता है

धीरे धीरे ज़ालिम की जड़ खोदो 'सौरभ'

रस्सी से चट्टान को काटा जा सकता है

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In Hindi By Famous Poet Saurabh Shekhar. is written by Saurabh Shekhar. Complete Poem in Hindi by Saurabh Shekhar. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.