आसाँ तो न था धूप में सहरा का सफ़र कुछ
आसाँ तो न था धूप में सहरा का सफ़र कुछ
बा-फ़ैज़ मगर मिलते रहे मुझ को शजर कुछ
पुर्सिश न करो मुझ से मरा हाल न पूछो
उखड़ा सा ज़रा रहता है जी मेरा इधर कुछ
सैलाब न हो तो न हो दिल में भी तलातुम
पानी तो रहे डूब के मरने को मगर कुछ
इतना ही ग़नी है जो समुंदर तो कहो वो
साहिल पे बहा लाए कभी लाल-ओ-गुहर कुछ
नाज़िल है जो ये उजला सा अँधेरा सा फ़ज़ा पर
मुमकिन है कि इस शब में हो पैवस्त सहर कुछ
आवाज़ भी लहराई थी हलचल भी हुई थी
इक पल को तो कुछ उभरा था आया था नज़र कुछ
शानों का ये ख़म तुझ में नई बात है 'सौरभ'
आईना कभी देखो रखो अपनी ख़बर कुछ
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