ज़ाहिद सभी हैं नेमत-ए-हक़ जो है अक्ल-ओ-शर्ब
लेकिन अजब मज़ा है शराब ओ कबाब का
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न जिया तेरी चश्म का मारा
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
मक़्दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का
साक़ी हमारी तौबा तुझ पर है क्यूँ गवारा
सदमा हर-चंद तिरे जौर से जाँ पर आया
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
दिल के टुकड़ों को बग़ल-गीर लिए फिरता हूँ
किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना