'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
होना है तुझ को 'मीर' से उस्ताद की तरफ़
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ऐ दीदा ख़ानुमाँ तू हमारा डुबो सका
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
कौन किसी का ग़म खाता है
जो गुज़री मुझ पे मत उस से कहो हुआ सो हुआ
दीं शैख़ ओ बरहमन ने किया यार फ़रामोश
किस के हैं ज़ेर-ए-ज़मीं दीदा-ए-नम-नाक हनूज़
ने ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से काम
ग़ुंचे से मुस्कुरा के उसे ज़ार कर चले
'सौदा' हुए जब आशिक़ क्या पास आबरू का
अबस तू घर बसाता है मिरी आँखों में ऐ प्यारे
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो