'सौदा' की जो बालीं पे गया शोर-ए-क़यामत
ख़ुद्दाम-ए-अदब बोले अभी आँख लगी है
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वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
न जिया तेरी चश्म का मारा
चेहरे पे न ये नक़ाब देखा
कैफ़िय्यत-ए-चश्म उस की मुझे याद है 'सौदा'
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
अपने का है गुनाह बेगाने ने क्या किया
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
बे-सबाती ज़माने की नाचार
धूम से सुनते हैं अब की साल आती है बहार
ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी