'सौदा' ख़ुदा के वास्ते कर क़िस्सा मुख़्तसर
अपनी तो नींद उड़ गई तेरे फ़साने में
Anwar Masood
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ये तो नहीं कहता हूँ कि सच-मुच करो इंसाफ़
जो गुल है याँ सो उस गुल-ए-रुख़्सार साथ है
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना
आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
कब दिल शिकस्त-गाँ से कर अर्ज़-ए-हाल आया
गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
दामन सबा न छू सके जिस शह-सवार का
दिल ले के हमारा जो कोई तालिब-ए-जाँ है
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं