'सौदा' जहाँ में आ के कोई कुछ न ले गया
जाता हूँ एक मैं दिल-ए-पुर-आरज़ू लिए
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न जिया तेरी चश्म का मारा
'सौदा' की जो बालीं पे गया शोर-ए-क़यामत
करता हूँ तेरे ज़ुल्म से हर बार अल-ग़ियास
जो गुज़री मुझ पे मत उस से कहो हुआ सो हुआ
दीं शैख़ ओ बरहमन ने किया यार फ़रामोश
गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
कौन किसी का ग़म खाता है
गर तुझ में है वफ़ा तो जफ़ाकार कौन है
किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़
कीजिए न असीरी में अगर ज़ब्त नफ़स को
बेचैन जो रखती है तुम्हें चाह किसू की
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है