'सौदा' हुए जब आशिक़ क्या पास आबरू का
सुनता है ऐ दिवाने जब दिल दिया तो फिर क्या
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नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
दिलदार उस को ख़्वाह दिल-आज़ार कुछ कहो
दामन सबा न छू सके जिस शह-सवार का
मौज-ए-नसीम आज है आलूदा गर्द से
'सौदा' जो तिरा हाल है इतना तो नहीं वो
'सौदा' की जो बालीं पे गया शोर-ए-क़यामत
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
दिखाऊँगा तुझे ज़ाहिद उस आफ़त-ए-दीं को
बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा