नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
अब तो 'सौदा' का बाजता है नाँव
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गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
बार-हा दिल को मैं समझा के कहा क्या क्या कुछ
न कर 'सौदा' तू शिकवा हम से दिल की बे-क़रारी का
तुम कान धर सुनो न सुनो उस के हर्फ़ को
मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं
ने ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से काम
साक़ी हमारी तौबा तुझ पर है क्यूँ गवारा
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
मत पूछ ये कि रात कटी क्यूँके तुझ बग़ैर
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना