क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
काफ़ी है तसल्ली को मिरी एक नज़र भी
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दिल में तिरे जो कोई घर कर गया
बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
यूँ देख मिरे दीदा-ए-पुर-आब की गर्दिश
जब नज़र उस की आन पड़ती है
'सौदा' जो बे-ख़बर है वही याँ करे है ऐश
ज़ाहिद सभी हैं नेमत-ए-हक़ जो है अक्ल-ओ-शर्ब
नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उस को न देखा हो
या रब कहीं से गर्मी-ए-बाज़ार भेज दे
फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
मौज-ए-नसीम आज है आलूदा गर्द से
मस्त-ए-सहर ओ तौबा-कुनाँ शाम का हूँ मैं