क्या करूँगा ले के वाइज़ हाथ से हूरों के जाम
हूँ मैं साग़र-कश किसी के साग़र-ए-मख़मूर का
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आराम फिर कहाँ है जो हो दिल में जा-ए-हिर्स
मगर वो दीद को आया था बाग़ में गुल के
है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा
बरहमन बुत-कदे के शैख़ बैतुल्लाह के सदक़े
किसे ताक़त है शरह-ए-शौक़ उस मज्लिस में करने की
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो
गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
ग़ुंचे से मुस्कुरा के उसे ज़ार कर चले
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना
आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी