कैफ़िय्यत-ए-चश्म उस की मुझे याद है 'सौदा'
साग़र को मिरे हाथ से लीजो कि चला मैं
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एक हम से तुझे नहीं इख़्लास
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
'सौदा' जहाँ में आ के कोई कुछ न ले गया
मैं ने तुम को दिल दिया और तुम ने मुझे रुस्वा किया
तुम कान धर सुनो न सुनो उस के हर्फ़ को
ने ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से काम
वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
जब नज़र उस की आन पड़ती है
दामन सबा न छू सके जिस शह-सवार का
धूम से सुनते हैं अब की साल आती है बहार