जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे
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कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
कहियो सबा सलाम हमारा बहार से
कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
करता हूँ तेरे ज़ुल्म से हर बार अल-ग़ियास
मक़्दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का
ज़ाहिद सभी हैं नेमत-ए-हक़ जो है अक्ल-ओ-शर्ब
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़
न जिया तेरी चश्म का मारा