इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
दिल को शोला सा कुछ लिपटता है
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दीं शैख़ ओ बरहमन ने किया यार फ़रामोश
फ़िक्र-ए-मआश इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
कब दिल शिकस्त-गाँ से कर अर्ज़-ए-हाल आया
दिल में तिरे जो कोई घर कर गया
बे-सबाती ज़माने की नाचार
बार-हा दिल को मैं समझा के कहा क्या क्या कुछ
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
दिखाऊँगा तुझे ज़ाहिद उस आफ़त-ए-दीं को
गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
सदमा हर-चंद तिरे जौर से जाँ पर आया
जब नज़र उस की आन पड़ती है