हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
मूसा नहीं जो सैर करूँ कोह तूर का
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गर यार के सामने मैं रोया तो क्या
फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
अम्मामे को उतार के पढ़ीयो नमाज़ शैख़
अबस तू घर बसाता है मिरी आँखों में ऐ प्यारे
ज़ालिम न मैं कहा था कि इस ख़ूँ से दरगुज़र
कब दिल शिकस्त-गाँ से कर अर्ज़-ए-हाल आया
यारो वो शर्म से जो न बोला तो क्या हुआ
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
ने ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से काम
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे