गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी
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'सौदा' ख़ुदा के वास्ते कर क़िस्सा मुख़्तसर
है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा
'सौदा' की जो बालीं पे गया शोर-ए-क़यामत
दीं शैख़ ओ बरहमन ने किया यार फ़रामोश
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
ये तो नहीं कहता हूँ कि सच-मुच करो इंसाफ़
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
बे-सबाती ज़माने की नाचार
ने ग़रज़ कुफ़्र से रखते हैं न इस्लाम से काम
या रब कहीं से गर्मी-ए-बाज़ार भेज दे
गर कीजिए इंसाफ़ तो की ज़ोर वफ़ा मैं