ग़रज़ कुफ़्र से कुछ न दीं से है मतलब
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
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दिल के टुकड़ों को बग़ल-गीर लिए फिरता हूँ
धूम से सुनते हैं अब की साल आती है बहार
तुम कान धर सुनो न सुनो उस के हर्फ़ को
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उस को न देखा हो
आशिक़ की भी कटती हैं क्या ख़ूब तरह रातें
यारो वो शर्म से जो न बोला तो क्या हुआ
मै-कशाँ रूह हमारी भी कभी शाद करो
मत पूछ ये कि रात कटी क्यूँके तुझ बग़ैर
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
जो गुज़री मुझ पे मत उस से कहो हुआ सो हुआ
जिस दम वो सनम सवार होवे