फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही हो न वतन से कोई ग़रीब जुदा
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अपने का है गुनाह बेगाने ने क्या किया
तुम कान धर सुनो न सुनो उस के हर्फ़ को
नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उस को न देखा हो
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
बहार-ए-बाग़ हो मीना हो जाम-ए-सहबा हो
क्या करूँगा ले के वाइज़ हाथ से हूरों के जाम
बुलबुल ने जिसे जा के गुलिस्तान में देखा
किसे ताक़त है शरह-ए-शौक़ उस मज्लिस में करने की
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना