दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
जूँ अश्क फिर ज़मीं से उठाया न जाएगा
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आदम का जिस्म जब कि अनासिर से मिल बना
कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
'सौदा' जो तिरा हाल है इतना तो नहीं वो
कीजिए न असीरी में अगर ज़ब्त नफ़स को
ऐ आह तिरी क़द्र असर ने तो न जानी
धूम से सुनते हैं अब की साल आती है बहार
तुझ क़ैद से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया
तुझ बिन बहुत ही कटती है औक़ात बे-तरह
कोताह न उम्र-ए-मय-परस्ती कीजे
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़