बे-सबाती ज़माने की नाचार
करनी मुझ को बयान पड़ती है
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जो गुल है याँ सो उस गुल-ए-रुख़्सार साथ है
देखूँ हूँ यूँ मैं उस सितम-ईजाद की तरफ़
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
ले दीदा-ए-तर जिधर गए हम
न जिया तेरी चश्म का मारा
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
जिस दम वो सनम सवार होवे
ये तो नहीं कहता हूँ कि सच-मुच करो इंसाफ़
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
बे-वज्ह नईं है आइना हर बार देखना
दिखाऊँगा तुझे ज़ाहिद उस आफ़त-ए-दीं को
किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़