बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
तेरे कूचे की गदाई से न खो दे मुझ को
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तुझ क़ैद से दिल हो कर आज़ाद बहुत रोया
हर आन आ मुझी को सताते हो नासेहो
मक़्दूर नहीं उस की तजल्ली के बयाँ का
गदा दस्त-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
बरहमन बुत-कदे के शैख़ बैतुल्लाह के सदक़े
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ये तो नहीं कहता हूँ कि सच-मुच करो इंसाफ़
ज़ाहिद सभी हैं नेमत-ए-हक़ जो है अक्ल-ओ-शर्ब
आराम फिर कहाँ है जो हो दिल में जा-ए-हिर्स
ज़ालिम न मैं कहा था कि इस ख़ूँ से दरगुज़र
'सौदा' शेर में है बड़ाई तुझ को
कब दिल शिकस्त-गाँ से कर अर्ज़-ए-हाल आया