अबस तू घर बसाता है मिरी आँखों में ऐ प्यारे
किसी ने आज तक देखा भी है पानी पे घर ठहरा
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हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
'सौदा' तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
समझे थे हम जो दोस्त तुझे ऐ मियाँ ग़लत
फ़िक्र-ए-मआश इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
कहते हैं लोग यार का अबरू फड़क गया
बदला तिरे सितम का कोई तुझ से क्या करे
गर कीजिए इंसाफ़ तो की ज़ोर वफ़ा मैं
जो गुल है याँ सो उस गुल-ए-रुख़्सार साथ है
हिन्दू हैं बुत-परस्त मुसलमाँ ख़ुदा-परस्त
गर तुझ में है वफ़ा तो जफ़ाकार कौन है
'सौदा' जो तिरा हाल है इतना तो नहीं वो