ये तो दुनिया भी नहीं है कि किनारा कर ले
तू कहाँ जाएगा ऐ दिल के सताए हुए शख़्स
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शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल
उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह