ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
ख़बर नहीं कि समुंदर का फ़ैसला क्या है
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हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
आँखों में एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है
आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं