यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
शोले से निकल आए शरारे की तरह हम
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नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है
ये तो दुनिया भी नहीं है कि किनारा कर ले
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
हर शय से पलट रही हैं नज़रें