वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
सो उस का जश्न ब-सद-एहतिमाम मैं ने किया
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गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
ये तो दुनिया भी नहीं है कि किनारा कर ले
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा