उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
सीने में एक हल्क़ा-ए-अहबाब और है
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आँखों का भरम नहीं रहा है
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा