सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
सो ढलता रहा जलता रहा चलता रहा मैं
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बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
पक्का रस्ता कच्ची सड़क और फिर पगडंडी
हर रोज़ इम्तिहाँ से गुज़ारा तो मैं गया
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
आँखों में एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर