नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है
कि आँख कह नहीं सकती सुनी-सुनाई हुई
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हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
आँखों का भरम नहीं रहा है
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी