मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
किसी किसी को तिरे ग़म का इस्तिआरा किया
Wasi Shah
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Rahat Indori
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Ahmad Faraz
Parveen Shakir
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Mir Taqi Mir
Gulzar
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इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
आँखों का भरम नहीं रहा है
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
ये तो दुनिया भी नहीं है कि किनारा कर ले
हर रोज़ इम्तिहाँ से गुज़ारा तो मैं गया
नुमू-पज़ीर है इक दश्त-ए-बे-नुमू मुझ में
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
समझ लिया था तुझे दोस्त हम ने धोके में
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ