किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
सफ़र कठिन है मगर एक बार आख़िरी बार
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बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल
उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी