ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
मंज़र का नज़ारा करूँ मंज़र से निकल कर
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नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
ये तो दुनिया भी नहीं है कि किनारा कर ले
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
आँखों का भरम नहीं रहा है
नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा