इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
ये चाँद वो नहीं मिरा महताब और है
Jaun Eliya
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कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
आँखों का भरम नहीं रहा है
ख़्वाहिश है कि ख़ुद को भी कभी दूर से देखूँ
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
सूरज के उफ़ुक़ होते हैं मंज़िल नहीं होती
आँखों में एक ख़्वाब पस-ए-ख़्वाब और है
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
हर शय से पलट रही हैं नज़रें
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर