हर शय से पलट रही हैं नज़रें
मंज़र कोई जम नहीं रहा है
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कुछ और अकेले हुए हम घर से निकल कर
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
गुज़र चली है शब-ए-दिल-फ़िगार आख़िरी बार
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
मैं चाहता हूँ उसे और चाहने के सिवा
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा