हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
मैं आफ़्ताब के मानिंद रहगुज़ार में था
Ahmad Faraz
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Allama Iqbal
Gulzar
Parveen Shakir
Habib Jalib
Wasi Shah
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Anwar Masood
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(612) Peoples Rate This
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
नज़र तो अपने मनाज़िर के रम्ज़ जानती है
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
दीवार पे रक्खा हुआ मिट्टी का दिया मैं
नज़रों की तरह लोग नज़ारे की तरह हम
अजब ख़जालत-ए-जाँ है नज़र तक आई हुई
हर रोज़ इम्तिहाँ से गुज़ारा तो मैं गया
बादल की तरह रंज-फ़िशानी करें हम भी
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ