हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
कितनी दूर से आई है ये रेत से हाथ मिलाने को
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मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल
ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
उन से भी मेरी दोस्ती उन से भी रंजिशें
बहुत दिनों में मिरे घर की ख़ामोशी टूटी
यकजाई से पल भर की ख़ुद-आराई भली थी
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है