बरून-ए-ख़ाक फ़क़त चंद ठेकरे हैं मगर
यहाँ से शहर मिलेंगे अगर खुदाई हुई
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कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
एक किताब सिरहाने रख दी एक चराग़ सितारा किया
मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
हिसाब-ए-तर्क-तअल्लुक़ तमाम मैं ने किया
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
आँखों का भरम नहीं रहा है
वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह
ये मेरी काग़ज़ी कश्ती है और ये मैं हूँ
इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी