ऐसा है कि सिक्कों की तरह मुल्क-ए-सुख़न में
जारी कोई इक याद पुरानी करें हम भी
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मिज़ाज-ए-दर्द को सब लफ़्ज़ भी क़ुबूल न थे
हर एक लम्हा-ए-मौजूद इंतिज़ार में था
कभी सराब करेगा कभी ग़ुबार करेगा
अपना गिर्या किस के कानों तक जाता है
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
किसी अलाव का शोला भड़क के बोलता है
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
इतनी सियाह-रात में इतनी सी रौशनी
नज़र के भेद सब अहल-ए-नज़र समझते हैं
मता-ए-हर्फ़ भी ख़ुश्बू के मा-सिवा क्या है
आँखों का भरम नहीं रहा है
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं