आख़िर इक रोज़ उतरनी है लिबादों की तरह
तन-ए-मल्बूस! ये पहनी हुई उर्यानी भी
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इश्क़ सामान भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
आँखों का भरम नहीं रहा है
बिछड़ गया है तो अब उस से कुछ गिला भी नहीं
कुछ और भी दरकार था सब कुछ के अलावा
वो चाहता था कि देखे मुझे बिखरते हुए
अजीब ढंग से मैं ने यहाँ गुज़ारा किया
ये जो मैं इतनी सहूलत से तुझे चाहता हूँ
तेरी शिकस्त अस्ल में मेरी शिकस्त है
तमाम उम्र यहाँ किस का इंतिज़ार हुआ है
हर इक उफ़ुक़ पे मुसलसल तुलूअ होता हुआ
हैरत से तकता है सहरा बारिश के नज़राने को
शाम से गहरा चाँद से उजला एक ख़याल