दश्त-ए-तन्हाई में हम ख़ाक उड़ा देते हैं
दश्त-ए-तन्हाई में हम ख़ाक उड़ा देते हैं
शब की ख़ामोशी में यादों को सदा देते हैं
दिन गुज़रते हैं तवाफ़ दर-ए-जानाँ करते
अपनी रातों को भी आँखों में गँवा देते हैं
रात भी बीत गई तारे भी सब डूब चले
अपने अश्कों को भी पलकों में छुपा देते हैं
अपने अतवार पे नादिम न हों महफ़िल में अज़ीज़
चेहरे छुप जाएँ चराग़ों को बुझा देते हैं
तुम परेशान हो क्यूँ हम तो तुम्हारी ख़ातिर
अब भी चाहो तो हर इक बात भुला देते हैं
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