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शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं - सत्तार सय्यद कविता - Darsaal

शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं

शहर-ए-ग़फ़लत के मकीं वैसे तो कब जागते हैं

एक अंदेशा-ए-शबख़ूँ है कि सब जागते हैं

शायद अब ख़त्म हुआ चाहता है अहद-ए-सुकूत

हर्फ़-ए-एजाज़ की तासीर से लब जागते हैं

राह-ए-गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हैं कि मंज़िल का सुराग़

कुछ सितारे जो सर-ए-क़र्या-ए-शब जागते हैं

अक्स इन आँखों से वो महव हुए जो अब तक

ख़्वाब की मिस्ल पस-ए-चश्म-ए-तलब जागते हैं

हर्फ़-ए-ख़ुफ़्ता की तरह चश्म-ए-तग़ाफ़ुल के भी

बाज़ औक़ात तो मफ़्हूम अजब जागते हैं

सहम जाते हैं मुंडेरों पे कबूतर 'सय्यद'

रास्ते बेड़ियों की चाप से जब जागते हैं

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In Hindi By Famous Poet Sattar Syed. is written by Sattar Syed. Complete Poem in Hindi by Sattar Syed. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.