वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
दर्द कैसा है जो मद्धम नहीं होने पाता
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दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली
इंटरनेट-स्थान की मलिका
कहाँ पे खोलोगे दर्द अपना किसे कहोगे
इर्तिक़ा
हज़ार टूटे हुए ज़ावियों में बैठी हूँ
बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
अपनी हम-ज़ाद के लिए
सदाओं का समुंदर
बे-तहाशा उसे सोचा जाए
फिर आस दे के आज को कल कर दिया गया
निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो
सवाल-अंदर-सवाल ले कर कहाँ चले हो