मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
किसी से क्या कहूँ क्या ज़ात के अंदर बनाती हूँ
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सदाओं का समुंदर
जो सारा दिन मिरे ख़्वाबों को रेज़ा रेज़ा करते हैं
सवाल-अंदर-सवाल ले कर कहाँ चले हो
हज़ार टूटे हुए ज़ावियों में बैठी हूँ
बिंत-ए-हव्वा
साए का इज़्तिराब
कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा
वक़्त भी मरहम नहीं है
बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
बस एक बार याद ने तुम्हारा साथ छू लिया
बे-तहाशा उसे सोचा जाए
बिस्तर और बावर्ची