ख़्वाब और तमन्ना का क्या हिसाब रखना है
ख़्वाहिशें हैं सदियों की उम्र तो ज़रा सी है
Anwar Masood
Jaun Eliya
Wasi Shah
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Mir Taqi Mir
Rahat Indori
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अपनी हम-ज़ाद के लिए
निगाह-ए-ख़ाक! ज़रा पैराहन बदलना तो
अजाइब-ख़ाना
कैसे बुझाएँ कौन बुझाए बुझे भी क्यूँ
तुम्हारी आस की चादर से मुँह छुपाए हुए
जाने वाले को चले जाना है
फिर आस दे के आज को कल कर दिया गया
इंटरनेट-स्थान की मलिका
हज़ार टूटे हुए ज़ावियों में बैठी हूँ
कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा
वक़्त भी मरहम नहीं है
आगही का जाल