दिल के दरिया ने किनारों से मोहब्बत कर ली
तेज़ बहता है मगर कम नहीं होने पाता
Rahat Indori
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अब तो सँवारने के लिए हिज्र भी नहीं
मिरे जज़्बों को ये लफ़्ज़ों की बंदिश मार देती है
फ़ना की अंजुमन से
आमरियत का क़सीदा
फिर आस दे के आज को कल कर दिया गया
बे-तहाशा उसे सोचा जाए
जब आह भी चुप हो तो ये सहराई करे क्या
आगही का जाल
वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
हज़ार टूटे हुए ज़ावियों में बैठी हूँ
कहाँ पे खोलोगे दर्द अपना किसे कहोगे
ख़ला में लुढ़कती ज़मीन