बिंत-ए-हव्वा हूँ मैं ये मिरा जुर्म है
और फिर शाएरी तो कड़ा जुर्म है
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शेरी का नौहा
बे-तहाशा उसे सोचा जाए
तुम्हारी आस की चादर से मुँह छुपाए हुए
अरीज़े की डाली
साए का इज़्तिराब
बस एक बार याद ने तुम्हारा साथ छू लिया
गुम-शुदा लम्हे की तलाश
वक़्त भी अब मिरा मरहम नहीं होने पाता
कैसे बुझाएँ कौन बुझाए बुझे भी क्यूँ
आगही का जाल
फिर आस दे के आज को कल कर दिया गया
कोई जवाज़ ढूँडते ख़याल ही नहीं रहा